।। श्री चंद्रप्रभु भगवान की जय ।।
।। इस अतिशय क्षेत्रपर और सभी स्थावर जंगम मालमत्ता पर दिगंबर जैन समाजकाही सर्व अधिकार है ।।
।। क्षेत्रपर दिये हुए दान का उपयोग दिगंबर जैन अम्नाय के अनुसार ही होगा ।।
मांडल अतिशय क्षेत्र मांगीतुंगीजी सिद्धक्षेत्र से 117 किमी. गजपंथा से 183 किमी. तथा कचनेरजी से 209 किमी. की दूरी पर स्थित है। मांडल गांव में श्री 1008 चंद्रप्रभु दिगंबर जैन मंदिर 1500 साल पुराना है। दि. 13-01-1999 को प. पू. गणाधिपति गणधराचार्य 108 श्री कुंथुसागरजी महाराज मांडल पधारे थे। उन्होंने चंद्रप्रभु भगवान एवं पंचमुखी क्षेत्रपाल बाबा का अतिशय देखकर मंदिर को अतिशय क्षेत्र घोषित किया।
❁ अतिशय क्षेत्र मांडल गांव का संक्षिप्त परिचय ❁
वीतरागी देव हमेशा घने जंगलों, पहाड़ों या छोटे-छोटे गांवों में ही बसे हुए हैं। उन्हीं में से महाराष्ट्र राज्य में जलगांव जिले में अमलनेर तालुका में एक छोटा-सा गांव मांडल नगरी, जो पूर्व खान्देश के नाम से भी प्रचलित हैं। जो पांझरा नदी के विशाल तट पर बसा हुआ 1500 वर्ष पुराना अति प्राचीन दिगंबर जैन मंदिर हैं। जिसमें चतुर्थकालीन मूलनायक भगवान चंद्रप्रभु की अतिशय प्राचीन मूर्ति अति चमत्कारी, मनको प्रसन्न करनेवाली एवं मनोकामना पूर्ण करनेवाली मनमोहक प्रतिमा हैं। मूलनायक चंद्रप्रभु के दाईं तरफ श्री 1008 अजितनाथ भगवान तथा बाईं ओर श्री 1008 मुनिसुव्रतनाथ भगवान विराजमान हैं और अतिशय करनेवाले पंचक्षेत्रपाल बाबा भी अत्यंत जागृत हैं। यहां के मंदिर के अतिशय का अनुभव तो यहां के स्थित जैन श्रावकगण तथा मंदिर के पास-पड़ोसवाले अजैन श्रावकों को काफी समय से हो रहा हैं। वेदी के पिछले भाग में दीवार की अलमारी में पद्मावती माता एवं पास में चंद्रप्रभु भगवान की यक्षिणी ज्वालामालिनी माता विराजमान हैं। एक तरफ कोने में पुरानी चरणपादुका विराजमान हैं।
एक वेदी पर जय, विजय, अपराजित, भैरव व मणिभद्र ये पंचक्षेत्रपाल बाबा विराजमान हैं। जो आज भी इस मंदिर में जागृत हैं। अमावस्या की आधी रात को नृत्य, गायन, डमरू, घुंघरु आदि की आवाजे सुनाई देती हैं और ऐसा लगता है कि मूलनायक भगवान की पंच क्षेत्रपाल बाबा आरती करते होंगे और मंदिर में मूलनायक भगवान का दिव्य प्रकाश प्रकाशित होकर अदृश्य हो जाता हैं। इस पंच क्षेत्रपालजी का बहुत ही अतिशय एवं चमत्कार हैं। वि.स. 2448 में सूरतगद्दी के भट्टारक सुरेंद्रकीर्तिजी दर्शन के लिए यहां पधारे। मंदिर को जीर्ण-शीर्ण देखकर मंदिर के जीर्णोद्धार की चर्चा श्रावकों से की। श्रावकों का न्याय से कमाया हुआ धन मंदिर जीर्णोद्धार में लगा और एक विशाल जिन मंदिर पक्का चूना व इंटों का शिखरबंद तैयार हो गया। वेदी में पुनः भगवान को विराजमान कर दिया गया। वहीं जिन मंदिर अभी वर्तमान में हैं। इसी मंदिर में प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथ भी जीर्ण-शीर्ण अवस्था में हैं। व्यापार के अभाव में सारे दिगम्बर जैनी मांडलगांव को छोड़कर अन्यत्र व्यापारार्थ चले गये। वर्तमान में अभी मात्र तीन ही दिगम्बर जैनियों के घर हैं, एक पूजारीजी का और दो अन्यका। यहां स्थानकवासी श्वेतांबर जैनों के घर अनेक हैं। जैनेत्तरों में करीब सभी जाति के लोग यहां बसे हुए हैं।
यहां के मंदिर में मूलनायक के रूप में जैन धर्म के अनुसार आठवें तीर्थंकर चंद्रप्रभु भगवान विराजमान हैं। चंद्रप्रभु भगवान काशी देश के चंद्रपुरी नगर में चैत्र कृष्ण पंचमी को महासेन राजा की रानी लक्ष्मणा के गर्भ में आए।
सौधर्मादि समस्त चतुर्निकाय देवों ने चंद्रपुरी में आकर भगवान का गर्भ कल्याणक उत्सव पूर्वक मनाया। पौष कृष्णा एकादशी को चंद्रप्रभु भगवान ने जन्म ग्रहण किया। इंद्र व समस्त देव बालक चंद्रप्रभु को ऐरावत हाथी पर विराजमान करके सुदर्शनमेरु पर ले गए। चंद्रशिला पर विराजमान कर प्रभु का एक हजार आठ क्षीरसागर का जल कलशों में भरकर अभिषेक किया। इंद्र ने नामकरण किया, जन्माभिषेक महोत्सव करने के बाद भगवान को पुनः माता के पास लाकर माता के गोद में विराजित किया। बालकुमारों को क्रीड़ा के लिए देवों को रखकर देव देवलोक चले गए।
समय पाकर भगवान चंद्रप्रभु राज्य वैभव को भोगकर एकदिन भोगों से विरक्त हो वैरागी बने। लोकांतिक देव भगवान को संबोधन करने के लिए आए और भगवान आप बहुत अच्छा कर रहे हैं ऐसा कह कर चले गए। इंद्रादिक सारे के सारे देव भगवान को दीक्षा के लिए पालकी में विराजमान कर दीक्षा वन में ले गए। भगवान ने वहां पौष कृष्णा. 11 को दीक्षा ग्रहण कर ली। भगवान ने घोर तपस्या की और फाल्गुन कृष्ण. 7 को केवलज्ञान प्राप्त किया। इंद्र ने समवशरण की रचना की, भगवान ने दिव्यध्वनि के द्वारा भव्य जीवों को उपदेश दिया। एक हजार वर्षों तक भगवान ने देश-देशांतर में घूमकर भव्यजीवों को उपदेश दिया, धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति चलाई, अनेक जीवों का कल्याण किया।
फिर भगवान ने धर्मोपदेश देना बंद कर योग निरोध किया। फाल्गुन शुक्ल. 7 को भगवान अष्टकर्मों से रहित होकर मोक्षपुरी को गए, याने मोक्ष को गये। भगवान चंद्रप्रभु सम्मेदशिखर पर्वत पर से मोक्ष गए। देवोंनें मोक्ष कल्याणक मनाया।
चंद्रप्रभु भगवान के शासनरक्षक शासनदेवता श्यामयक्ष व ज्वालामालिनी माता हैं। इस मंदिर में समय-समय पर देव लोग अपने परिवार सहित आकर भगवान की पूजा-अर्चना-भक्ति-नृत्यादि सुंदर-सुंदर वाद्यो ध्वनि से करते हैं। तब मंदिर में दिव्य प्रकाश ही प्रकाश फैल जाता हैं। दिव्यवाद्यों (बाजे) की आवाज आसपास के लोगों को भी सुनाई देती हैं। विशेषकर प्रत्येक माह की अमावस्या को यह शब्द व प्रकाश सुनाई और दिखाई देता हैं। आसपास के लोगों को पूर्णतः यहां का अतिशय मालूम हैं।

मूलनायक श्री चंद्रप्रभु भगवान

✴ अनेक चमत्कार ✴
मंदिर की दीवार से ही लगकर अजैन गृहस्थ का मकान हैं। मकान की छत पर अजैन बालक सो रहा था। उस दिन अमावस्या थी। अचानक रात्रि में 12:00 बजे घंटे बजने की आवाज सुनाई देने लगी। दिव्य प्रकाश फैल गया, जय-जयकारा शब्द सुनाई देने लगा। वह लड़का अचानक जाग गया, मंदिर जी में से जोर-जोर की आवाज सुनकर डर गया और छत से ही नीचे कूद गया और भाग गया।
एक बार इस नगरी में स्थानकवासी साधु-साध्वियों का संघ आया। पहले इनका स्थानक नहीं था, इसलिए मंदिरजी में व पास के कमरों में साधु-साध्वियों को ठहरा दिया गया। उसदिन भी अमावस्या थी। वही रात्रि में कुंडिया बजने लगी और ठहरी हुई साध्वियाँ डर गई। प्रातः ही डर के मारे घबराकर आगे विहार की तैयारी कर ली। श्रावकों के पूछने पर साधु-साध्वियों ने कहा “न जाने क्या बात हैं, रात को चोर आए थे और क्या हुआ। मंदिर में से शब्द आ रहा था । हमारे कमरों की कुंडिया किसने खटखटाई, हम सबको भय लग रहा हैं। हम यहां नहीं ठहरेंगे, आगे विहार करेंगे।” तब श्रावकों ने कहा की महाराज साब डरने की जरूरत नहीं, यह मंदिर जाग्रत मंदिर हैं, यहां ऐसा चमत्कार होता हैं। अमावस्या की रात देवलोग आते हैं और भगवान की पूजा-अर्चना करते हैं। कल रात भी ऐसा ही हुआ था। तब सब का डर गया और संघ कुछ दिन और ठहरा।
🐍 मूछवाला सर्पदर्शन 🐍
यहां के श्री. गुलाबचंदजी डुमनदास जैन पूजारीजी बताते हैं कि एक बहुत बड़ा सात-आठ फूट का सांप मंदिरजी में दिखाई दिया। लाइट नहीं थी, मात्र दीपक का ही उजाला था। लोग डरने लगे। सांप को देखने के लिए आसपास के लोग एकत्रित हो गये। भयंकर नागराज था, कुछ लोगों ने नागराज को पकड़ने के लिए लोगों को बुलवा लिया। कितने ही प्रयत्न किए फिर भी नागराज पकड़ में नही आये, सब लोग थक गये। वह नागराज मंदिरजी के अंदर ही घूमता हुआ क्षेत्रपालजी के पास आया और बाहर निकलकर न जाने कहां गायब हो गया, फिर ढूंढने पर भी नहीं मिला। लोगों ने निर्भय होकर मंदिरजी में भगवान की आरती और भक्ति की।
वर्तमान आचार्य विद्यासागरजी के संघस्थ दो मुनिराज योगसागरजी और पवित्रसागरजी क्षेत्रपर दर्शन के लिए पधारे। दोनों ही मुनिराज रात्रि में मंदिरजी में ही सो गये। जैसे ही नींद आने लगी वैसे एक साधु आकर कहने लगे कि, “मुनिश्री उठ बैठो, सामायिक करो, सोओ मत, सोने का समय नहीं है, सामायिक करने का समय है।” इस प्रकार कईबार रात्रि में ऐसा हुआ। जब भी सोने के लिए आंख मींचते तब उनको या तो आचार्य विद्यासागरजी दिखते। इस बात को पूजारीजी के पुत्र मास्टर अरविंदजी ने आचार्यश्री को बताया। क्षेत्रपर अनेक मुनिराज दर्शन के लिए पधारे, उनको क्षेत्र का कुछ न कुछ अतिशय दिखा हीं। क्षेत्रपर मुनिश्री हेमसागरजी पधारे, मुनिश्री सिद्धांतसागरजी, मुनिश्री निजानंदसागरजी, मुनिश्री कनकऋषिजी, मुनिश्री पद्मसागरजी, मुनिश्री श्रुतसागरजी, मुनिश्री केशवनंदिजी, मुनिश्री सुविधिसागरजी, मुनिश्री नेमीसागरजी, मुनिश्री रयणसागरजी का संघ, मुनिश्री ज्ञानभूषणजी, मुनिश्री अनेकांतसागरजी, आर्यिका मृदुमतिमाताजी का संघ, श्री कल्पवृक्षनंदिजी महाराज आदि पधारें। इन सब मुनिराजों को क्षेत्र का पूर्णतः अतिशय दिखा। तब यहां मंदिरजी के ट्रस्ट कार्यकर्ता श्रीमान सेठ अध्यक्ष बेटावद के नानाभाई ढोलुसा जैन व उनके पुत्र सुनिलजी व शेखर, भरत जैन, भिकूसा जैन, बालचंद जैन, अतुल जैन, दिपेश जैन, परेश जैन, अरविंद जैन, प्रवीण जैन, अनिल जैन, नीलेश जैन, रमेश जैन, प्रकाश, जीतु आदि सब मिलकर मेरे पास धुलिया में पधारे। नारियल चढ़ाकर प्रार्थना करने लगे कि महाराजश्री आपको संघ सहित मांडल चंद्रप्रभु दिगम्बर जैन मंदिर में पधारना हैं। क्षेत्र पर भगवान चंद्रप्रभु का जन्म कल्याणक मनाना हैं।
श्री. श्यामयक्ष

मॉं ज्वालामालिनी माता

मैंने क्षेत्र परिचय जाना और अनुमति दे दी कि मैं संघ सहित प्रोग्राम के लिए अवश्य ही आऊँगा। उसीके अनुसार प्रोग्राम निश्चित हुआ, पत्रिकाऍं छपी, सर्वत्र आसपास के गांवो में आमंत्रण पत्रिका भेजी गई, मुख्य दानपतियों को भी आमंत्रित किया गया। दि. 10-01-1999 को संघ मांडल पहुंच गया। संघ का पुष्पवृष्टी करते हुए स्वागत किया गया। जुलूस पूरे नगर में घुमाया, संघ मंदिरजी में पहुंचा, भगवान का दर्शन किया और स्थान पर ठहरा।
दि. 13-01-1999 को प्रातः श्रीजी का पालकी जुलूस निकाला गया। फिर मूलनायक भगवान का अभिषेक प्रारंभ हुआ। साधुओं की आहारचर्या हुई, सामायादिक होने के बाद संघ पांडाल में विराजमान हुआ। मंगलाचरण पं. संजयकुमार(बापु) ने किया। क्षेत्र परिचय व अतिशय को समाज के सामने रखा, फिर भगवान चंद्रप्रभु के पंचामृताभिषेक की बोलियां हुई। इस दिन मुख्य अतिथिविशेष श्रीमान सेठ वीरेंद्रजी डोटिया प्रतापगढ़वाले बने और जैनमित्र साप्ताहिक पत्रिका के संपादक श्री शैलेशजी कापड़िया सूरतवाले बने। अतिशय क्षेत्र का बोर्ड उद्घाटन श्री. डॉ. बी. एस. पाटील आमदार ने किया, सर्वत्र जय-जयकार होने लगा। यह क्षेत्र इस प्रकार चमत्कार वाला हैं, इसलिए इस क्षेत्र को मैं अतिशय क्षेत्र घोषित करता हूँ। तालियों की गड़गड़ाहट का शब्द गूंजने लगा, जय जयकार होने लगा, बाजे बजने लगे, पुष्पवृष्टी होने लगी। प्रतिवर्ष इसी तरह क्षेत्र पर पौष कृ. 11 को मेला लगेगा ऐसा सारी जैन-जैनेत्तर समाज ने स्वीकार किया। ये सारा कार्य होने पर हम सब मंदिरजी में गए, भगवान चंद्रप्रभु का पंचामृताभिषेक हुआ। सबका भोजन होकर उस दिन का प्रोग्राम समाप्त हुआ। सूरत से पधारे श्रीमान सेठ वीरेंद्रकुमारजी डोटिया प्रतापगढ़ इनकी मातुश्री ने एक हॉल बनाने की स्वीकृती दी और भी दाताओंने दान देने की घोषणा की। सारा का सारा प्रोग्राम निर्विघ्न और शांति से पूर्ण हुआ। दि. 15-01-1999 को आहार के बाद संघ का कापडणा के लिए विहार हुआ।
• एक और चमत्कार •
संघस्थ बा. ब्र. ग. आ. क्षेमश्री माताजी की तबियत कापडणा में जाकर बहुत खराब हो गई। मुझे बहुत चिंता हो गई, क्या करना चाहिए? कुछ समझमें नहीं आ रहा था। मांडल से ट्रस्टी सुनिलजी आये, मैंने उनको कहाकि माताजी की तबीयत बहुत खराब हो गई हैं, आप मांडल क्षेत्र पर क्षेत्रपाल बाबा के पास नारियल फोड देना माताजी के नाम से, जिससे माताजी की तबियत शीघ्र ठीक हो। क्षेत्र पर आकर क्षेत्रपालजी को नारियल फोडा गया, माताजी ने भी क्षेत्रपालजी को याद किया। उसी रात्रि में क्षेत्रपालजी माताजी के पास आए, सिर पर हाथ फेरा, प्यार दिया और वापस चले गए। उसी समय से माताजी की तबियत में सुधार आया और मुझे चिंता कम हुई। दि. 05-02-1999 को चतुर्विध संघ को लेकर कापडणा से वापस मांडल आकार क्षेत्र दर्शन किए। इसी तरह इस क्षेत्र पर विराजमान क्षेत्रपालजी का महान चमत्कार है। दुःखियों का दुःख दूर करते हैं, मन चिंतीत सभी काम पूरे करते हैं। भक्तों के मन की भावनाओं को समझकर सारी भावनाओं को पूरा करते हैं। प्रत्येक श्रद्धालु को श्रद्धा से यहीं आना चाहिए। जिसका भक्ति-भाव अच्छा होगा उसी का कार्य सिद्ध होगा। इस क्षेत्र पर सभी भक्तों को आना चाहिए। अपने चंचल लक्ष्मी का सद्-उपयोग करना चाहिए। अभी क्षेत्र पर सुविधाओं की बहुत कमी हैं, वो कमी दानियों के दान से ही पूरी हो सकती हैं। इसलिए सभी को यहां आकर धन-दान करना चाहिए।
इस क्षेत्र को प्रकाश में लाने के लिए कमेटी के कार्यकर्ताओं को क्षेत्र का विशेष प्रचार करना चाहिए। महाराष्ट्र खान्देश में यह पहला अतिशय क्षेत्र घोषित हुआ हैं, जितना ज्यादा प्रचार होगा उतना ही जल्दी सें क्षेत्र का जीर्णोद्धार होगा। यह जिन मंदिर पूर्णतः दिगम्बर जैन मंदिर हैं, अधिकार भी दिगम्बर जैनों का ही हैं। क्षेत्र अधिकारियों को पूरा का पूरा सहयोग देकर अपने अधिकार की सुरक्षा रखें, सबको मेरा आशीर्वाद।
– गणाधिपते गणधराचार्य कुंथुसागरजी महाराज
दि. 15-01-1999
प्राचीन चरणपादुका

श्री. पंचक्षेत्रपालजी बाबा

।। श्री वितरागाय नमः।।
परम पूज्य आचार्य श्री श्रेयांससागर महाराजजी के परम चरण कमलों में मुनि निजानंदसागर का नमोस्तू नमोस्तू नमोस्तू।
यहां मांडल नगरी में 600 वर्ष पहले का दिगम्बर जैन मंदिर हैं। जिन मूर्तियां वितरागत पूर्वक विराजमान हैं। इसलिए आप जरूर पधारने की कृपा करना। पुराना मंदिर हैं और अतिशय युक्त भी हैं। अमावस्या के दिन घंटा बजने, नृत्य, घुंघरू की आवाज सुनाई देती हैं। इसलिए ऐसे मंदिर का दर्शन करना चाहिए, फिर एकबार आचार्य श्री श्रेयांससागर महाराजजी के चरणों में नमोस्तू नमोस्तू नमोस्तू
– मुनिश्री निजानंदसागरजी महाराज
दि. 19-01-1982
✤ मेरे बाबा का अतिशय ✤
कलिकाल सर्वज्ञ श्रीमद् वीरसेनाचार्य भगवानने श्री धवलाजी ग्रन्थमें एक प्रश्न उद्घृत किया कि जब समोशरण की गंधकुटी में स्वयं साक्षात् तीर्थंकर भगवान विराजमान है और चारों संध्याओं में उनकी दिव्य ध्वनि खिर रही है, तब वहां चैत्यादी भूमियोंमें उनकी प्रतिमायें विराजमान करने की क्या आवश्यकता है। उस प्रश्न का उत्तर भी स्वयं आचार्य भगवानने दिया और जिन प्रतिमा का महत्व बताते हुए कहा कि तीर्थंकर भगवान की प्रतिमा कल्याणकारी हैं। समवशरण में स्थित मानस्तंभ में विराजमान जिन प्रतिमा के दर्शन से ही सर्व प्रथम मान का गलन होता हैं, मिथ्यात्व नष्ट होता हैं, तब कहीं सम्यग्दर्शन होने पर साक्षात् तीर्थंकर भगवान के दर्शन प्राप्त होते हैं। अर्थात वह प्रतिमा ही तीर्थंकर भगवान के दर्शन में निमित्त कारण हैं तथा तीर्थंकर जिनेन्द्र के निर्वाण के पश्चात उनकी प्रतिमायें ही संसारी जीवोंके पुण्यार्जन, पाप शमन तथा रत्नत्रय की प्राप्तिमें प्रबलतम निमित्त हैं। यहां तक कि आचार्य भगवानने स्पष्ट कहा कि जिन प्रतिमा का दर्शन, अर्चन, स्तवन हमारे निकाचित श्रेणी के पाप कर्मों को भी नष्ट करनेमें समर्थ हैं। श्रीमद् पूज्यपाद स्वामि भी उसी बातका प्रबलतम समर्थन करते हुए कहते हैं कि ❝विघ्नौघाः प्रलयं यांति, शाकिनी भूत पन्नगा:। विषं निर्विषतां याति, स्तूयमाने जिनेश्वरे।।❞ अर्थात् जिनेन्द्र भगवान की स्तुति करनेसे संपूर्ण विघ्नों का समूह प्रलय को प्राप्त हो जाता है, शाकिनी, भूत, पन्नग आदि के सभी उपद्रव शांत हो जाते हैं। अति तीक्ष्ण विष भी निर्विष हो जाता है। इत्यादिक अतिशय जिन प्रतिमाओं में घटित होने लगता है। वहीं प्रतिमा अतिशय युक्त प्रतिमा के नाम से पूज्य हो जाती हैं तथा वह क्षेत्र अतिशय क्षेत्र घोषित हो जाता हैं। ऐसे अनेक प्राचीन अर्वाचीन अतिशय क्षेत्र संपूर्ण भारतवर्ष में विद्यमान हैं। इन्हीं में से एक श्री चंद्रप्रभु दिगंबर जैन अतिशय क्षेत्र मांडल हैं, जो कि महाराष्ट्र प्रांतस्थ खान्देश में पांझरा नदी के तट पर बसे मांडल ग्राम के मध्यमें स्थित है और लगभग डेढ़ हजार(1500) वर्षों से जिनशासन के अतिशय को दर्शा रहा है। यहां पांचो क्षेत्रपाल जागृत रूप में एक साथ विद्यमान है। वे अमावस्या के दिन स्वयं प्रकट/अप्रकट रूप में भगवान की आरती, स्तुति, अर्चना करते हैं। घुंघरू, डमरु, घंटा, बंसी, वीणा, ढोल, नगाड़े तुरही आदि अनेक सुंदर वाद्यों की ध्वनि के साथ सुंदर भक्तिनृत्य करते हैं। उस समय पूरे मंदिर में एक दिव्य प्रकाश फैल जाता है।
यहां आकर अनेक भक्तजनों के संकट, आपदायें स्वयमेव शांत हो जाते है। जो यहां रोते-रोते आता है वो यहां से हंसते-हंसते जाता है। मैने भी इस अतिशय का अनुभव किया हैं। जब मैं अपने संघ (संघस्थ मुनिश्री कवीन्द्रनंदीजी, मुनिश्री कुलपुत्रनंदीजी, गणिनी आर्यिका राजश्री, आर्यिका क्षमाश्री व आर्यिका आस्थाश्री) के साथ इंदौरसे विहार करते करते सोनगीर आया तब संघस्थ गणिनी आर्यिका राजश्री माताजी का किड़नी संबंधी रोग अत्यधिक बढ़ जाने से संघ को सोनगीरमें ही रुकना पड़ा। उसी समय मांडल से नानाभाई जैन अपने पूरे ट्रस्ट मंडल के साथ मेरे पास आये। मांडल क्षेत्रके चंद्रप्रभु भगवान और पंचक्षेत्रपालजी का संपूर्ण इतिहास व अतिशय मुझे समझाया, साथ ही श्री चंद्रप्रभु भगवान के जन्म कल्याणक पर आयोजित वार्षिक मेले में संघ सहित सान्निध्य देने का निवेदन किया। मैंने भी सहर्ष स्वीकृति प्रदान की। इसी बीच दि. 07-01-2001 को राजश्री माताजी की दोनों किड़नी फेल हो गई। छह घंटे में चार अटॅक आये, जिससे जीवन-मरण का संशय उत्पन्न हो गया। उनकी जिव्हा पूर्णतया कट गई तथा नेत्रों से दिखना बंद हो गया। उस समय मांडल वाले चंद्रप्रभु भगवान का अतिशय सुनकर, देवास के गुरुभक्त वैद्य पं. जितेंद्र शास्त्री (शर्मा) एवं देवास के ही गुरुभक्त संजय जैन (राजश्री गृह उद्योगवाले) ये दोनों महानुभाव मांडल में गये। वहां भगवान चंद्रप्रभु के समक्ष घी की ज्योत जलायी, उनके समक्ष और पंच क्षेत्रपाल बाबाके समक्ष नारियल वधारकर संकल्प किया कि, “हें प्रभु हम आपके द्वार पर राजश्री माताजी(माई) की जीवन ज्योति वापिस लेने आये हैं और जबतक हमारी माताजी की ज्योति वापिस नहीं आयेगी तबतक हम यहांसे नहीं उठेंगे।” उस समय उनकी श्रद्धा,भक्ति और भगवान के अतिशय से अतिशीघ्र माताजी की नेत्रज्योति वापिस आ गयी। उस समय पूरा सोनगीर गाँव मांडलवाले बाबा के जयघोषसे गुंजायमान हो गया। तत्पश्चात वार्षिक मेले में संघ सहित भगवान के दर्शनका सौभाग्य मिला तब क्षेत्र में प्रवेश करते ही मैंने एक आल्हाद, उल्लास और अपूर्व ऊर्जा का अनुभव किया।

श्री. 108 श्रीमदभट्टारकजी सुरेंद्रकीर्तिजी महाराज

प्राचीन आचार्यो ने जिन प्रतिमा का जो भी अतिशय आगम ग्रन्थो में उद्घृत किया है वह श्री चंद्रप्रभु भगवान की प्रतिमा में यहां साकार दिखाई दिया तथा जिन शासन की रक्षा में लगे शासन की प्रभावना बढ़ाने वाले शासन रक्षक देवों का जाग्रत रूप देखकर, प्राचीन दिगम्बर जैनाचार्यो प्रणीत आगम के प्रति मस्तिष्क श्रद्धासे नतमस्तक हो गया। अत्यंत श्रद्धाभाव भरे वातावरण में भगवान का महामस्तकाभिषेक हुआ। तत्पश्चात पंच क्षेत्रपालबाबा का भव्यतम श्रृंगार हुआ।
त्रिदिवसीय विधानादिक मांगलिक कार्यक्रम हुए। भगवान की मनोहारी मूर्ति व अतिशय देखकर संघने पुनः अमावस्या को दर्शन पाने की भावना व्यक्त की और भगवान के अतिशय से सवा साल से पूर्व ही भगवान के पुनः दर्शन प्राप्त हुए। इत्यादि क्षेत्रके महान अतिशय हैं।
अतः इस अतिशय क्षेत्र का अत्याधिक प्रचार, प्रसार होना चाहिए, जिससे अधिकाधिक भव्यात्मा इन अतिशयवान, महान अतिशय क्षेत्रका दर्शन लाभ ले और अपनी संपूर्ण आधी-व्याधीयोंसे मुक्त होकर सम्यक धर्मको, रत्नत्रय को प्राप्त कर सकें। इस हेतु क्षेत्र कमेटी के सभी कार्यकर्ताओं को और अधिक कर्तव्य, निष्ठा, निष्पक्ष, निस्वार्थ, निर्लोभ, सेवाभावी होना अनिवार्य है। तभी इस क्षेत्र का विकास, प्रचार, प्रसार संभव है। सभी कार्यकर्ताओं का अखंड संगठन ही विकास का मूलमंत्र है।
-परम पूज्य प्रज्ञायोगी दिगम्बर जैनाचार्य गुप्तिनंदीजी महाराज
दि. 06-04-2002
श्री दिगम्बर जैन सिद्धक्षेत्र गजपंथा (नासिक) महाराष्ट्र
श्री चंद्रप्रभु दिगम्बर जैन ट्रस्ट मण्डल मांडल-आशीर्वाद
अत्यंत हर्षके साथ मैं अपनी भावना व्यक्त करता हूँ। श्री दिगम्बर जैन मंदिर मांडल में भगवानकी भव्य एवं मनोज्ञ तथा वीतरागता की उत्कृष्टता के साथ भगवान श्री चंद्रप्रभु, भगवान श्री अजितनाथ और भगवान श्री मुनिसुव्रतनाथकी प्रतिमा विराजमान है। जो करीब 1500 वर्ष प्राचीन है। यहाँ के क्षेत्रपालजी बाबा बड़े ही चमत्कारीक एवं अतिशय युक्त है। सुननेमें आया है यहाँ बहुत अतिशय होता है- लेकिन मैंने स्वयं यहाँके मंदिरके अतिशय का अनुभव किया है। इसलिए मैं इस मंदिर और क्षेत्रको अतिशय व्यक्त करनेका आदेश इस मंदिरके ट्रस्ट मण्डलको देता हूँ। ट्रस्ट मण्डल इस आदेशको ध्यान में रखते हुए क्षेत्रका विकास करे एवं क्षेत्रको अतिशय क्षेत्र घोषित करें। इसी भावनाके साथ…..
-आ. कल्पमुनि हेमसागरजी महाराज
दि. 28-09-1998
आचार्य सम्राट अतिशय योगी 108 कुशाग्रनंदीजी महाराजजी इनके प्रथम शिष्य 108 कनकऋषि महाराजजी प्रत्यक्ष अनुभव अभिप्राय-
❛दुसरोंके दुःखको अपना दुःख मानता वह महन्त है
स्वयं के दुःख को जो दुःख नहीं मानता वह संत है
अपने सुखको जो दुसरोंके सुखके लिए स्वछ परिणाम से त्याग दे वे भगवंत है।❜
❝एक दुसरेको जोडनेका तरीका प्यार है। एक दुसरेको तोडनेका तरीका खार है।
भले ही आप हमारे विचारोंसे सहमत न हो, पर यह मेरा अनुभव सिद्ध विचार है।।❞
दि. 14-12-1998 इतवार के दिन शामको मेरा मंगल विहार 1008 श्री चंद्रप्रभु दिगम्बर जैन मंदिरमें हुआ। मंदिरमें पहुंचते ही जब भगवान चंद्रप्रभु, भगवान मुनिसुव्रतनाथ और अजितनाथ भगवान की अतिप्राचीन मूर्ति देखते ही(इनके दर्शन होते ही) सिद्धक्षेत्र जैसे प्रतिति हो गई। यहां अतिशय करनेवाले क्षेत्रपाल भी जाग्रत देवस्थान है, यह स्वयं अनुभवमें आया है। इसलिए मैं ट्रस्ट मंडलको उपदेश देता हूँ की इस अतिशय क्षेत्रका विकास शीघ्र हो जावें इति आशीर्वाद।
-108 कनकऋषि महाराजजी
आचार्य सम्राट अतिशय योगी 108 कुशाग्रनंदी महाराजजी के प्रथम शिष्य
दि. 14-12-1998



✿ वार्षिक मेला ✿
श्री 1008 चंद्रप्रभु भगवान का जन्म कल्याणक एवं तप कल्याणक पौष कृष्णा एकादशी को भव्य पालकी जुलूस निकालकर एवं 108 कलशों से अभिषेक, पूजा करके मनाया जाता हैं। इसदिन ध्वजा चढाई जाती है तथा भंडारा होता हैं।
✿ पूर्णिमा ✿
हर माह की पूर्णिमा को भगवान का पंचामृत अभिषेक होता हैं। इसदिन यात्रियों के लिए अल्प-आहार की भी व्यवस्था होती हैं।
✿ शनि-अमावस्या ✿
हर माह की अमावस्या को भगवान का अभिषेक होता हैं और पंच-क्षेत्रपाल बाबा को तेल-शेंदूर लगाया जाता हैं। शनि-अमावस्या यानि की शनिवार के दिन आनेवाली अमावस्या को बहुत ही खास माना जाता हैं। (साल में मुश्किल से 1 या 2 शनि अमावस्या होती हैं।) इस अमावस्या का बडा महत्त्व होता हैं। शनि-अमावस्या को दूर-दूर से श्रावकगण विशाल संख्या में भगवान के दर्शन हेतू मांडल अतिशय क्षेत्रपर आते हैं। भगवान का अभिषेक करके, पंच-क्षेत्रपाल बाबाको तेल-शेंदूर लगाके पुण्य अर्जित करते हैं। (यह शेंदूर मंदिरजी में ही उपलब्ध होता हैं। बाहर से लाया हुआ शेंदूर स्वीकार नही किया जाता।) शनि-अमावस्या के दिन श्रावकों के द्वारा भंडारा(आहारदान) होता हैं।


